सिवाना का दुर्ग जोधपुर से ५४ मील पश्चिम की ओर है। इसके पूर्व में नागौर, पश्चिम में मालानी, उत्तर में पचपदरा और दक्षिण में जालौर है। वैसे तो यह दुर्ग चारों ओर रेतीले भाग से घिरा हुआ है परंतु इसके साथ-साथ यहां छप्पन के पहाड़ों का सिलसिला पुर्व-पश्चिम की सीध में ४८ मील तक फैला हुआ है। इस पहाड़ी सिलसिले के अंतगर्त हलदेश्वर का पहाड़ सबसे ऊँचा है, जिस पर सिवाना का सुदृढ़ दुर्ग बना है।
सिवाना के दुर्ग का बड़ा गौरवशाली इतिहास है। प्रारंभ में यह प्रदेश पंवारों के आधीन था। इस वंश में वीर नारायण बड़ा प्रतापी शासक हुआ। उसी ने सिवाना दुर्ग को बनवाया था। तदन्तर यह दुर्ग चौहानों के अधिकार में आ गया। जब अलाउद्दीन ने गुजरात और मालवा को अपने अधिकार में लिया, तो इन प्रांतों में आवागमन के मार्ग को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह मार्ग में पड़ने वाले दुर्गों पर भी नियंत्रण करे। इस नीति के अनुसार उसने चित्तौड़ तथा रणथम्भौर को अपने अधिकार में कर लिया। परंतु मारवाड़ से इन प्रांतों में जाने के मार्ग तब तक सुरक्षित नही हो सकते थे जब तक जलौर और सिवाना के दुर्गों पर इसका अधिकार नही हो जाता। इस समय सिवाना चौहान शासक शीतलदेव के नियंत्रण में था। सीतलदेव ने चित्तौड़ तथा रणथम्भौर जैसे सुदृढ़ दुर्गों को खिलजी शक्ति के सामने धराशायी होते हुए देखा था। इस कारण उसके मन में भय तो था, परंतु उसने सिवाना के दुर्ग की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कामना भी थी। वह बिना युद्ध लड़े किलों को शत्रुओं के हाथ में सौंप देना अपने वंश, परंपरा और सम्मान के विरुद्ध समझता था। उसने कई रावों और रावतों को युद्ध में परास्त किया था एवं उसकी धाक सारे राजस्थान में जमी हुई थी। अत: उसके लिए बिना युद्ध लड़े खिलजियों को दुर्ग सौंप देना असंभव था।
जब अलाउद्दीन ने देखा कि बिना युद्ध के किले पर अधिकार स्थापित करना संभव नही है तो उसने २ जुलाई १३०८ ई० को एक बड़ी सेना किले को जीतने के लिए भेजी। इस सेना ने किले को चारों ओर से घेर लिया। शाही सेना के दक्षिणी पार्श्व को दुर्ग के पूर्व और पश्चिम की तरफ लगा दिया एंव वाम पार्श्व को उत्तर की ओर। इन दोनों पाश्वाç के मध्य मलिक कमलुद्दीन के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी रखी गई। राजपूत सैनिक भी शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए किले के बुजाç पर आ डटे। जब शत्रुओं ने मजनीकों से प्रक्षेपास्रों की बौछार शुरु की तो राजपूत सैनिकों ने अपने तीरों, गोफनों तथा तेल मे भीगे वस्रों में आग लगाकर शत्रु सेना पर फेंकना प्रारंभ किया। जब शाही सेना के कुछ दल किले की दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करते तो राजपूत सैनिक उनके प्रयत्नों को विफल बना देते थे। लंबे समय तक शाही सेना को राजपूतों पर विजय प्राप्त करने का कोई अवसर नही मिला। इस अवधि में शत्रुओं को बड़ी छति उठानी पड़ी तथा उसके सेना नायक नाहर खाँ को अपने प्राण गंवाने पड़े। जब मुस्लिम सेना कई माह तक दुर्ग पर अधिकार में असमर्थ रही तो स्वंय अलाउद्दीन एक विशाल सेना लेकर आ गया। उसने पूरी सैन्य शक्ति के साथ दुर्ग का घेरा डाल दिया। अब तक लंबे संघर्ष के कारण दुर्ग में रसद का आभाव हो गया था। जब सर्वनाश निकट दिखाई देने लगा तो राजपूत सैनिकों ने दुर्ग के दरवाजे खोलकर शाही सेना पर धावा बोल दिया। वीर राजपूत शत्रुओं पर टुट पड़े और एक-एक करके वीरोचित गति को प्राप्त हुए। सीतल देव भी एक वीर योद्धा की तरह मारा गया। दुर्ग पर अधिकार करने के बाद अलाउद्दीन ने कमालुद्दीन को इसका सूबेदार नियुक्त किया।
जब अलाउद्दीन के बाद खिलजियों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो राव मल्लीनाथ के भाई राठौड़ जैतमल ने इस दुर्ग पर कब्जा कर लिया और कई वर्षों तक जैतमलोतों की इस दुर्ग पर प्रभुता बनी रही। जब मालदेव मारवाड़ का शासक बना तो उसने सिवाना दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया। यहां उसने मस्लिम आक्रमणकारियों का मुकाबला करने के लिए युद्धोपयोगी सामग्री को जुटाया। अकबर के समय राव चन्द्रसेन ने सिवाना दुर्ग में रहकर बहुत समय तक मुगल सेनाओं का मुकाबला किया। परंतु अंत में चन्द्रसेन को सिवाना छोड़कर पहाड़ों में जाना पड़ा। अकबर ने अपने पोषितों के दल को बढ़ाने के लिए इस दुर्ग को राठौड़ रायमलोत को दे दिया। लेकिन जब जसबंत सिंह की मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ में स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ तो सिवाना की तरफ भी सैनिक अभियान आरंभ हो गए। इस तरह मारवाड़ के इतिहास के साथ सिवाना के शौर्य की कहानी जुड़ी हुई है।
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